भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आदमी के पास हो दौलत नहीं आराम है / गिरधारी सिंह गहलोत

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:33, 28 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गिरधारी सिंह गहलोत |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आदमी के पास हो दौलत नहीं आराम है
ज़िंदगी में कुछ नहीं फिर ज़िंदगी नाकाम है।

वक़्त इतना भी नहीं गर खा सके दो रोटियां
किसलिए करता बशर फिर रात दिन यूँ काम है।

बाज आओगे नशे से तुम नहीं हरगिज़ अगर
ग़म को न्योता दे रहे हो मौत ही अंजाम है।

अब सियासत को भरम है कुछ बिगड़ना है नहीं
इसलिये दिन मद भरे हैं और रंगीं शाम है।

जो भी दुनियां में जुबानें ख़ूबसूरत हैं सभी
रार कर भाषा पे तू क्या दे रहा पैग़ाम है।

अपने मुँह बनते मियां गर खुद ही मिठ्ठू याद रख
कौन कितने आब में सब देखती आवाम है।

कौन तुझको छोड़कर यूँ जा सका है ज़िंदगी
बांधने को मोह की जंजीर कितनी आम है।

मतलबी दुनियां बहुत है लोग भी शातिर बहुत
पाक दामन हो रहा क्यों हर कदम बदनाम है।

याद भी सबको दिलाना क्यों पड़े है अब 'तुरंत'
हर बशर के काम आना हर बशर का काम है।