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गीत तुम पर क्या लिखूँ / गिरधारी सिंह गहलोत

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गीत तुम पर क्या लिखूँ
जब तुम स्वयं ही गीत हो
   
बूँद स्वाति की हैं जीवन चातकों का
ज्ञान लक्ष्य हैं भटकते जातकों का
चाहता चकोर शीतल चांदनी बस
मोक्ष प्राप्ति है उद्देश्य साधकों का
मीन का अवलम्ब हैं जल,प्रीत मेरा
प्रीत का पर्याय हैं सारा जगत, पर
प्रीत तुमसे क्या करूँ
जब तुम स्वयं ही प्रीत हो
    
गीत तुम पर क्या लिखूँ....
    
मीत जल्दों का सदा से हैं पवन
मीत तारों का प्रसारित हैं गगन
मीत नदियों का गरजता हैं ये सागर
मीत शलभों का प्रज्ज्वलित हैं अगन
चन्दन तरु हैं मीत सारे विषधरों का
प्राप्त हो सुप्रीति जिससे मीत वह, पर
मीत तेरा क्या बनूँ जब
तुम स्वयं ही मीत हो
    
गीत तुम पर क्या लिखूँ....
    
हार का शत्रु हमेशा से जमाना
पर कभी होता समुचित हार जाना
विकट पर मधुरिम अजाने प्रेम पथ पर
हार कर मन को कठिन हैं पार पाना
इस जगत में सहस्त्रों प्रस्तुत उदाहरण
हारा हैं मन प्यार पाने को, मगर
जीत तुमसे क्या सकूँ
जब तुम स्वयं ही जीत हो
    
गीत तुम पर क्या लिखूँ
जब तुम स्वयं ही गीत हो!