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जब भी याद तुम्हारी आती / गिरधारी सिंह गहलोत

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जब भी याद तुम्हारी आती
तब क्यों चंचल हो उठता मन
तिरने लग जाते नयनों में
बीते दिन वो बीती रातें
घंटो अपलक खोये रहकर
नैनों की वो गुपचुप बातें
देह न छू कर भी प्रेम के
अहसासों का करना अनुभव
और सहस्त्रों बार जो की थी
प्रीत की मीठी प्यारी घातें
टूटे दर्पण में प्रतिबिम्बित
सी लगती सारी घटनाएं
आज भी भरकर नीर दृगों में
क्यों हो बेकल रो उठता मन
   
जब भी याद...
   
पल पल मन के आँगन में नित
मधुरिम सपने करना निर्मित
श्रेष्ठ प्रीतिमय आनंददायी
जीवन लक्ष्य करना कल्पित
करते आशा रच जायेंगे
एक नया इतिहास प्रणय का
और समय के पन्नो पर हम
कुछ अधिकार करेंगे निश्चित
किन्तु स्वपन न हुए सत्य ही
और कल्पना रही अधूरी
खण्ड खण्ड सी प्रेम कथा के
पृष्ठों में क्यों खो उठता मन
   
जब भी याद...
   
छोटे से तूफान ने अपनी
कश्ती को रख दिया डूबाकर
हल्के से आघात ने मन को
बुरी तरह रख दिया हिलाकर
दीप बुझ गया आशाओं का
उजियारा पाने से पहले
सूरज बदली ओट हो गया
बस दो क्षण अंधकार हटाकर
नियति का निर्णय क्रूरतम
मन को बदल गया मरघट में
सब कुछ खोकर भी दागों को
अनजाने क्यों धो उठता मन
   
जब भी याद तुम्हारी आती
तब क्यों चंचल हो उठता मन