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रेत रो हेत / ओम पुरोहित ‘कागद’
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कुण कैवै
उडण सारु पग
भोत जरूरी है
देखो भंवै है नीं
बिना पग पांख
आखै जग में
पाणीं सोधती रेत
जठै मिलै
बठै ई बैठ जावै
बांथ घाल'र जळ रै
रेत ई पाळै
जळ सूं हेत
बिना पग-पांख!