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शिकारी और शिकार / रंजना जायसवाल

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पूर्वज शिकारी थे
शिकार करना नहीं छोड़ता
देखते ही शिकार
हिंसक चमक से
भर उठती हैं उसकी आँखें
जिसे कोई ‘जेनुइन’ चमक
कह देता है वह
ज्यों-ज्यों होता गया है सभ्य
ईजाद करता गया है
शिकार करने के नए-नए तरीके
आज इतना नादान नहीं है
कि ऐसे अस्त्र-शस्त्र उठाए
कि अलग से नजर आए
और शिकार सतर्क हो जाए
किसी भी उम्र में हो शिकारी
नहीं छोड़ता शिकार करना
होता है बूढ़ा तो
बूढ़े शेर की तरह
दिखाता है सोने के कंगन
बगुले सा भगत बन जाता है
होता है जवान
छोड़ता है ऐसी कस्तूरी गंध
शिकार चला आता है
खिंचा हुआ खुद ही
कितना भी होशियार हो शिकार
निकलना ही पड़ता है बाड़े के बाहर
भोजन की तलाश में
और निकलते ही उसके
निशाना साध लेता है शिकारी
कभी-कभी शिकार भी
करता है उलट वार
लोककथा की युवा बकरी की तरह
भेड़िए के साथ खुद भी मारा जाता है।
सदियों से शिकार के
दांव-पेंच देखते-झेलते
हो जाता है शिकार भी कभी-कभी शिकारी
पर कमजोर शिकार को ही मारता है
नन्हें को छोटा
छोटे को मँझोला
मँझोले को बड़ा
बड़े को उससे भी बड़ा मारता है।
यह क्रम बढ़ता ही चला जाता है
और मत्स्य न्याय कहलाता है
सोचती हूँ जब हर शिकारी
किसी न किसी का शिकार होता है
तो शिकार का दर्द क्यों नहीं समझता है
क्यों नहीं समझता कि दोनों के बीच
बस बड़ी ’ई’ का अंतर होता है
आखिर वह ‘ई’ से ईश्वर क्यों बनता है?