भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये कम्बख़्त दाँत / रंजना जायसवाल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:47, 28 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना जायसवाल |अनुवादक= |संग्रह=ज...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काट लेते हैं अक्सर मुझे
ये कमबख्त दाँत
लहूलुहान जीभ ने सिसकते हुए मुझसे कहा
_’क्या करूं ...कितना सहूँ
उम्र में हूँ बड़ी
मेरे सामने हुए पैदा
कितना दुलारा
जब भी हुई तकलीफ इन्हें
चुमकारा,पुचकारा
ढाल बन गयी
जो आई इन पर आंच
फिर भी सताने से नहीं आते बाज़
ये कमबख्त दाँत। ’
सोचती हूँ -किसे समझाऊँ
नरम –नाजुक जीभ को
कि कटखने दाँतों को
दोनों हैं मेरे जरूरी हिस्से
सेहत और सौंदर्य के आधार
अधूरे हैं खुद भी ये
एक –दूसरे के बिना
जीभ बड़ी है
गम्भीर है
स्त्री है
सब समझती है
इसलिए समझौता कर लेती है
पर जाने कैसी चली है
बाहर बयार
कि दाँत ही उदण्ड हो गए हैं
नहीं सुनते मेरी एक भी बात।
समझाती हूँ आखिर जीभ को ही
-‘घबरा मत दाँत अति करेंगे
जल्द झड़ेंगे
तू रहेगी दुलारी
मेरे अंत समय तक साथ’
मेरी बात सुन
जाने क्यों जीभ अनमनी हो गयी है
दाँतों के खिलाफ बात
उसे अच्छी नहीं लगी है।