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ढूँढ कर लाओ ज़िन्दगी / नीरजा हेमेन्द्र

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रेशमा दौड़ रही है
हरी पगडंडियों पर
जीवन प्रस्फुटित हो रहा है सृश्टि पर
नन्ही रेशमा...
सपने उड़ रहे हैं उसके साथ
तितलियों की भाँति
वह खिलने लगी है पुश्पों-सी
चहकने लगी है वसंत-सी
थोड़ी बड़ी हुई रेशमा, बन गयी दुल्हन
सजी राजकुमारी-सी
विदा कर दी गयी ससुराल
बस! कुछ ही दिन व्यतीत हुए
ससुराल से वापस पीहर आ गयी
तन पर कुछ चोटें
मन में कुछ दुखद स्मृतियाँ लेकर
ससुराल से वापस पीहर आ गयी
रेशमा उदास रहती दिन भर...
रोती रहती पूरी रात... सोचती
क्यों टूटे उसके सपने...
क्यों कुचलीं गयी उसकी इच्छायें
किस अपराध का दण्ड दिया गया उसे
किसकी और कौन-सी अपेक्षायें
पूरी नही कर पायी वो ससुराल में
क्या रेशमा के सपनों का कोई मूल्य नही था
क्या महत्वहीन थे उसके सपने
रेशमा की देह मात्र खेलने
और भोगने की वस्तु तो नही थी
माँ की दहलीज पर वापस
पटक दी गयी वह क्यों
अब दुनिया की दृश्टि में वो हो गयी थी
व्यर्थ... जूठी... अयोग्य...
किन्तु उसकी देह में नीहित थी
कापुरूशों के लिए उसकी उपयोगिता
एक दिन उसके हृदय में प्रथम बार
प्रस्फुटित हुआ प्रथम प्रेम
निश्छल... श्वेत फेनिल...
नदी के जल जैसा शीतल प्रेम
उसे आभास तक नही हुआ कि
यह प्रेम उससे नही... मात्र उसकी देह से था
और एक रात रेशमा जल कर
मर गयी अपने कक्ष में
अपनी नन्ही कोख के साथ
अपने सपनों के साथ
उस रात प्रकृति ने जाना
स्त्री होना अपराध है...
रेशमा! मैं पूछ रही हूँ तुमसे
तुम जल कर क्यों मर गयी
क्यों तुममें साहस नही था
उस छली, धोखबाज, कापुरूश के संसर्ग से
उपज रही नन्हीं जान को
दुनिया में लाने का
तुम दुर्बल नही थी रेशमा
तुम्हारे पास थी स्त्रीत्व... मातृत्व की
असीमित शक्ति
तुम जल कर क्यों मर गयी रेशमा!
मैं तुमसे कहती हूँ
ढूँढकर लाती ज़िन्दगी... अपनी भी
और उस नवांकुर की भी
कापुरूशों से कुछ तो कहो
उठो रेशमा उठो! तुम जीवन थी मृत्यु नही।