छंद 5 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
रूप घनाक्षरी
(चित्त स्थिर होने पर वसंत-शोभा का अनुभव करके वर्णन)
हौरैं-हौंरैं डोलतीं सुगंध-सनीं डारन तैं, औरैं-औरैं फूलन पैं दुगुन फबी है फाब।
चौंथते चकोरन सौं, भूले गए भौंरन सौं, चार्यौ ओर चंपन पैं चौगुनौं चढ़ौ है आब॥
‘द्विजदेव’ की सौं दुति देखत भुलानौं चित, दसगुनी दीपति सौं गहब गछे गुलाब।
सौगुने समीर ह्वै सहसगुने तीर भए, लाखगुनी चाँदनी, करोरगुनौं महताब॥
भावार्थ: धीरे-धीरे सुगंधिमिश्रित डालों के डोलने से फूलों पर दूनी शोभा फब रही है; फूलों पर चकोरों के चोंच चलाने से एवं उन्मत्त भूले हुए भ्रमरों के भावरें भरने से चारों ओर अनेक प्रकार के चंपक-वृक्षों पर चौगुनी शोभा मालूम होती है। सुर, भूसुर की शपथपूर्वक ‘कवि’ कहता है कि प्राकृतिक शोभा देख मत मोहित हो गया, क्योंकि गुलाब की दस गुनी दीप्ति की चकाचौंध, सौ गुने सुखद वायु, सहस्र गुने शोभा पूरित यमुना-पुलिन, लाख गुनी चमकीली चाँदनी और करोड़ों गुनी सुखमा-संपन्न महताब (चंद्रमा) ने मुझे क्षुभित किया।