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छंद 10 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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(शांतिमय वन-वर्णन)
सीतल-समीर मंद हरत मरंद-बुंद, परिमल लीन्हैं अलि-कुल छबि छहरत।
कामबन, नंदन की उपमा नदेत बनैं, देखि कैं बिभव जाकौ सुर-तरु हहरत॥
त्यागि भय-भाव चहूँ घूँमत अनंद-भरे, बिपिन-बिहारिन पैं सुख-साज लहरत।
कोकिल, चकोर, मोर करत चहूँघाँ सोर, केसरी-किसोर बन चारौं ओर बिहरत॥
भावार्थ: इस वन में समीर, पुष्पों से मकरंद संचित करते हुए मंद-मंद चल रहे हैं, जिनकी सुगंधि में लिपटकर भ्रमर-समूह इतस्ततः गुंजार करते घूम रहे हैं। कामवन तथा नंदनवन भी इसकी समता नहीं पा सकते? क्योंकि इसके ऐश्वर्य को देखकर और उनपर सुख का समूह लहरा रहा है; कोकिल, चकोर, मोर इत्यादि पक्षी चहचहा रहे हैं तथा सिंह का बच्चा भी चारों ओर घूम रहा है, किंतु कोई किसी का भय नहीं करता।