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छंद 15 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी

(परिपूर्ण ऋतुराज का प्रकाश रूप से वर्णन)

चँहकि चकोर उठे, सोर करि भौंर उठे, बोलि ठौर-ठौर उठे कोकिल सुहावने।
खिलि उठीं एकै बार कलिका अपार, हलि-हलि उठे मारुत सुगंध सरसावने॥
पलक न लागी अनुरागी इन नैननि पैं पलटि गए धौं कबै तरु मन-भाँवने।
उँमगि अनंद अँसुवान लौं चहूँधाँ लागे, फूलि-फूलि सुमन मरंद बरसावने॥

भावार्थ: दर्शकवृंद में कोलाहल मच गया। चकोर चहचहाने लगे, भ्रमरों ने शोर मचाया, कोकिल-समूह ने स्थान-स्थान पर सुहावनी बोलियाँ सुनाईं; कलिका-समूह, वनिता-समूह से एक बार ही खिल उठे-प्रसन्न हो उठे, और सुगंधि फैलानेवाला वायु भी मेले की कसमस से हिलने लगा। मेरे अनुरागी नयनों पर पलक भी नहीं लगने पाई थी कि चित्त मोहित करने वाली वृक्षावली की शोभा, ऐसी अधिकाई मानो एकाएकी पलट गई और सुमन अर्थात् उत्तम हृदयवाले लोगों की तरह आह्लादरूपी मकरंद के ब्याज से पुष्प आनंदाश्रु बरसाने लगे।