छंद 16 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
हौंन लागे सोर चहुँ ओर प्रति कुंजन मैं, त्यौंहीं पुंज-पुंजन पराग नभ छाइगौ।
फूल-फल साजत कौं आयसु बिपिन माँहिं, सीतल-सुगंध मंद-पौंन पहुँचाइ गौ॥
‘द्विजदेव’ भूले-भूले फिरत मलिंदन की, सुषमा बिलोकि हिऐं सुख सरसाइ गौ।
आए हुते आगे तैं हरौलन के गोल इत, आवत हमारे उत ‘ऋतुपति’ आइ गौ॥
भावार्थ: महाराजाओं की सवारी का क्रम यह होता है कि प्रथम बलपदतल की प्रतिध्वनि, फिर रज-समूह, फिर अधिकारियों का समूह, पीछे और भूले-भटके, पश्चात् सपारिषदवर्ग महाराज स्वयं आते हैं। इसी क्रम से ‘कवि’ ने देखा कि प्रत्येक कुंज में शोर मच गया अर्थात् वायु-विधुनित पत्रावली की खड़खड़ाहट, अलिपुंज के गुंजार, पक्षियों की चहकार इत्यादि के एक में मिल जाने से शोर सा हो गया। फिर पुष्प-रज वा धूलि, वसंत-वायु से उड़-उड़कर नभ में छा गई। फिर फूल-फल इत्यादि सामग्री सज्जित करने की आज्ञा, शीतल पवन, सुगंधित समीर, मंद मारुत आदि अधिकारियों ने आके प्रचलित की, पीछे भूले-भटके भ्रमरों को आते देख हृदय में सुख-संचार हुआ, इन सब हरौलों के पश्चात् महाराज ‘ऋतुपति’ की सवारी दीख पड़ी।