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छंद 27 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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किरीट सवैया
(पुनः ऋतुपति आगमन-वर्णन)

डोलि रहे बिकसे तरु एकै, सु एकै रहे हैं नवाइ कैं सीसहिँ।
त्यौं ‘द्विजदेव’ मरंद के ब्याज सौं, एकै अनंद के आँसू बरीसहिँ॥
कौंन कहै उपमा तिनकी जे लहैंईं जे लहैंई सबै बिधि संपति दीसहिँ।
तैसैंई ह्वै अनुराग-भरे कर-पल्लव जोरि कैं एकै असीसहिँ॥

भावार्थ: कोई वृक्ष विकसित हो डोलते, कोई अपने सिर को नवाते, कोई मकरंद गिराकर मानो आनंदाश्रु बहाते और कोई अपने पल्लवरूपी हाथों को जोड़े हुए प्रेम से ऋतुपति को आशीर्वाद देते हैं; जो सब प्रकार की पत्रादिक संपत्ति से परिपूर्ण हैं, उनकी संसार में किसी वस्तु से समता कौन दे सकता हे।