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छंद 25 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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नाराच

कहूँ-कहूँ बनीं-ठनीं, लसैं सु बापिका घनी। जहाँ-तहाँ मलिंद-बृंद-बृंद की प्रभा ठनी॥
चकोर चारु-चारु चाँदनीन चौंथते चहूँ। कपोत-गोत कौ तहाँ सु सोर होत है कहूँ॥त्र

भावार्थ: क्वचित्, अर्थात् कहीं वापिकाएँ सुसज्जित स्त्रियों की भाँति मंगल-सूचनार्थ दीखती हैं (वापिका शब्द स्त्रीलिंग है) और इतस्ततः मलिंदों के झुंड की शोभा विराज रही है; चकोर आनंद से रमणीय चाँदनी के फूलों को चोंच से नोच-नोचकर पुष्प-वृष्टि करते हैं और अनेक जाति के कबूतरों की पृथक्-पृथक् ध्वनि करने से सुहावना ‘सोर’ मचा हुआ है।