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छंद 41 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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रोला
(फाग और वंशी ध्वनि द्वारा स्तब्धता का संक्षिप्त वर्णन)
कबहुँक फागुन माँहिँ, दोऊ फगुवा मिलि खेलहिँ।
लखि मदमाँते-स्याम, कबहुँ सखियाँ हँसि हेलहिँ॥
ह्वै नबोढ कहुँ मुग्ध-तिया, मोहन-मन-रोहैं।
हरि-मुख सुनि कहुँ बैनु, सबै-बिधि राधा मोहैं॥
भावार्थ: कभी फागुन मास में दोनों फाग खेलते हैं, कभी उन्मत्त मनमोहन को देख गोपीजन परिहास से अपमान करती है, कभी नवोढ़ा और कभी मुग्धा होकर श्रीराधिका श्री भगवान् का मन मोहती हैं और कभी मोहिनी वंशी की धुनि सुनकर स्वतः मोहित होती है।