भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छंद 47 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:08, 29 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज |अनुवादक= |संग्रह=शृंगारलति...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोला
(रासलीला और उद्धव-संवादादि का संक्षिप्त वर्णन)

खेलि-रास हरि दुरैं, बहुरि बन-कुंजन माँहीं।
ब्रज-जुबतीं बूझतीं जाइ, तरु-पुंजन पाँहीं॥
लीला-बस हरि बसि-बिदेस, ऊधवै पठावैं।
तिन सौं सब मिलि जाइ, आपनौं बिरह सुनावैं॥

भावार्थ: कबहुँ (कभी) रास-क्रीड़ा से ‘मुरलीमनोहर’ कुंजों में अंतर्धान होते हैं और व्रज-वनिता प्रलाप दशा में तरु-समूह से पूछती हैं कि प्यारे कहाँ गए। कबहुँ (कभी) वे लीला से विदेश में बस, उद्धव को पत्रिका देकर भेजते हैं और फिर उनको व्रज-विरहिणियाँ अपनी विरह-दशा सुनाती हैं।