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छंद 58 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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दोहा
(कवि की स्वयं उक्ति)
चाँहत करन प्रसिद्ध इत, उत डराइ रहि जाउ।
उर-अंतर ता-छन पर्यौ, ऐसौ संभ्रम भाउ॥
भावार्थ: एक ओर तो ग्रंथ के प्रकाश करने की बलवती इच्छा है और दूसरी ओर छिद्रदर्शियों के भय से रुकावट, सुतरां ऐसी भ्रमात्मक भावना उस समय मेरे चित्त में उत्पन्न हुई।