भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छंद 58 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:14, 29 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज |अनुवादक= |संग्रह=शृंगारलति...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोहा
(कवि की स्वयं उक्ति)

चाँहत करन प्रसिद्ध इत, उत डराइ रहि जाउ।
उर-अंतर ता-छन पर्यौ, ऐसौ संभ्रम भाउ॥

भावार्थ: एक ओर तो ग्रंथ के प्रकाश करने की बलवती इच्छा है और दूसरी ओर छिद्रदर्शियों के भय से रुकावट, सुतरां ऐसी भ्रमात्मक भावना उस समय मेरे चित्त में उत्पन्न हुई।