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छंद 69 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिला सवैया
(पुनः युगल स्वरूप-वर्णन)

छबि चंद्रिका की सरसाइ सबै बिधि, ताप हरैं छिति-छोरन की।
सुभ सोम-कला सम आस-भरैं, मनमोहन-नैन-चकोरन की॥
इहिँ बानिक सौं बृषभानु-सुता, जब बाट गहै बन ओरन की।
‘द्विजदेव’ जू काहि न चाँह बढ़ै, मन-वारि घने-तृन-तोरन की॥

भावार्थ: चंद्रिका की छवि सब प्रकार से बढ़ाती, आसमुद्रांत संताप का निवारण करती और चंद्र के सदृश, भगवान गोपीजन-वल्लभ के नयन-चकोरों की आशा पूर्ण करती वृषभानु-नंदिनी जब कुंज की राह लेतीं अर्थात् कुंज को पधारती हैं तब किसकी चाह इस अद्भुत दृश्य को, स्वरूप को देखकर मन को न्योछावर कर बारंबार तृण तोड़ने की नहीं होती, यानी यह सभी की इच्छा होती है कि ईश्वर इस अनुपम रूप-माधुरी को कुदृष्टि से बचावे। यह प्राचीन परिपाटी अद्यावधि चली आती है कि कुदृष्टि-निवारण के अर्थ किसी अद्भुत वस्तु पर तृण न्योछावर कर तोड़ते हैं, यानी कुदृष्टि के फल ने तृण को नष्ट किया, नजर लगनेवाले को नहीं।