भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छंद 76 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:07, 29 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज |अनुवादक= |संग्रह=शृंगारलति...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुर्मिला सवैया
(परकीया नायिका-वर्णन)

मधुरी मुसुक्यानि मनोहर मैं, मति मेरी जु आनि ठगी सो ठगी।
गरुए-गहबीले गुलाब के पात से, गातन दीठि लगी सो लगी॥
सजनी! यह नेह-मई बतियाँन तैं, काम की जोति जगी सो जगी।
अब कोऊ कितौऊ कहै किन री! जु हौं स्याम के रंग रँगी सो रँगी॥

भावार्थ: हे सखि! उनकी मनोहर और मधुर मुसकान ने मेरे चित्त को जोराजोरी (जबरदस्ती) छीन लिया। योंही उनके गुलाब की पँखुरी सरीखे सुकुमार सरस अंगों ने मेरी दृष्टि को फँसा लिया और उनके स्नेह (प्रीति व तैल) से सानी (सनी) हुई बातों ने मेरे तन में काम की ज्वाला जला दी, अस्तु जो हुआ सो हुआ, अब चाहे कोई कुछ भी कहो मेरा मन उस श्याम (कृष्ण व काला) के रंग में रँगा सो रँगा, अब त्रिकाल में भी मिट नहीं सकता; क्योंकि काले रंग पर स्वभावतः दूसरा रंग कभी नहीं चढ़ सकता।