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छंद 86 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(मानिनी-वर्णन)

घूँमि घने घुमरैं घन घोर, चहूँ चढ़ि नाँचत मोर अटारी।
त्यौं ‘द्विजदेव’ नई उनई, दरसाति कदंबनि की छबि न्यारी॥
चूनरी-सी छिति मानौं बिछी, इमि सोहति इंद्र-बधू की पत्यारी।
काहि न भावति ऐसे समैं, ठकुराइनि! या हरियारी तिहारी॥

भावार्थ: दूती वर्षाकालीन शोभा को देख कहती है कि हे स्वामिनी! सघन घन उमड़-घुमड़कर नभ को आच्छज्ञदित कर रहे हैं, जिसे देख मयूरगण अट्टालिकाओं पर चढ़ उन्मत्त हो नाच रहे हैं। फिर कदंबवृक्षावली के पुष्प-पल्लवादि वर्षा होने से प्रक्षालित हो (धुलकर) डहडहे हो रहे हैं। हरी-भरी भूमि पर इंद्रवधू (बीरबहूटी) की पंक्ति इतस्ततः झुंड-की-झुंड रूप से चल रही हैं मानो ‘रतिरानी’ ने अपने प्राणप्रिय ‘पुष्पधन्वा’ के सम्मानार्थ बैठने को अपनी चूनरी बिछाई है। ऐसे सुहावन सावन के हरे-भरे समय में आपकी हरियारी (हरि से मित्रता और सब्जी अर्थात् हरेरी) किसको नहीं भाती अर्थात् हम सबको अत्यंत सुखदाई है तो आपको भी सुखद ही होनी चाहिए।