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छंद 87 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(प्रौढ़ा खंडिता नायिका-वर्णन)

तेह-तरेरे अनूदय तैं, सुतौ साँझ भई पिय आपके लेखैं।
लाली कहा मुख-मंडल मैं? प्रतिबिंबित ईंगुर की सु बिसेखैं॥
भोरहिँ तैं ‘द्विजदेव’ खिले दृग दोपहरी के प्रसून से पेखैं।
छातिऐ माहिँ छबीले-लला! सु तौ हंसन की अवली अवरेखैं॥

भावार्थ: नायिका की कोपयुक्त तीव्र दृष्टि देख नायक कहता (प्रश्न करता) है कि ‘तेह तरेरे अनूदय तैं’ अर्थात् आज प्रातः काल ही से क्यों तुम्हारा मुख कोपयुक्त हो तमतमाया हुआ है? इस पर नायिका उत्तर देती हुई कहती है-सुतौ साँझ भई पिय आपके लेखैं’ अर्थात् हे प्रिय! आपके शयन का समय आया है, यह तो सायंकाल का तरेरा दीख रहा है, सूर्य का भी अभाव है। तरेरा-सायंकाल के अंतर्गत सूर्य की लाली को भी कहते हैं, यानी नायिका विपरीत लक्षणा से कहती है कि रात्रि भर जगे हुए प्रातःकाल ही को निशा (रात्रि) मान आप सोवें। नायक फिर प्रश्न करता है-‘लाली कहाँ मुख-मंडल मैं? अर्थात् मेरा यह अभिप्राय नहीं है, किंतु मैं यह पूछता हूँ कि तुम्हारा मुख-मंडल अरुण क्यों हो रहा है?’ तिसपर नायिका पुनः उत्तर देती है-‘प्रतिबिंबित ईंगुर के सु बिसेखैं’ अर्थात् अब मैं समझी! इसका कारण यह है कि रात्रि को आपके हेतु शृंगार किए हुए स्नेहादिक से चिक्कण मेरे कपोलों पर प्रभात आए हुए आपके मुख में लगे सिंदूर का प्रतिबिंब है, यानी विपरीत लक्षणा से (नायिका) कहती है कि किसी ग्रामीण स्त्री से आपका समागम हुआ है, जिसने बड़ी असावधानी से चुंबन किया, जिससे आपके मुख-मंडल पर नवीन शृंगार किया हुआ सिंदूर भरपूर लग गया, उसी का प्रतिबिंब मेरे मुख पर पड़ रहा है। नायक फिर प्रश्न करता है-‘भोरहिँ तैं ‘द्विजदेव’ खिले, दृग दोपहरी के प्रसून से पेखैं’ अर्थात् आज प्रातः काल ही से तुम्हारी आँख, दुपहरिया के फूल-सी लाल-लाल देखता हूँ, जो मध्याह्न में फूलता है। तिसपर नायिका फिर उत्तर देती हुई कहती है-‘छातिऐ माहिँ छबीले लला! सु तौ हंसन की अवली अवरेखैं’ अथा्रत् मध्याह्न में ‘बंधूक-पुष्प’ के विकसित होने का कारण यहाँ भी प्राप्त है, यानी वहाँ एक ही सूर्य पुष्प को विकसित करता है और यहाँ सूर्यों का समूह है, क्योंकि हंस सूर्य और बिछवा दोनों को कहते हैं; अतः आपके वक्षःस्थल पर पड़े हुए बिछुवान के चिह्न रूप सूर्य, जो आपने अपनी प्रिया को आदर देने के अर्थ असावधानी से हंस पक्षी के रूप का बना हुआ बिछुआ (चरणांगुली की मुद्रिका) पहने हुए चरणों को अपने हृदय से लगाया है-अत्यंत सन्निकट हैं, जिससे बंधूकरूपी नेत्र प्रफुल्लित हुए हैं। हंस शब्द में अभिधामूलक व्यंग्य है, हंस के यहाँ दो अर्थ हैं-सूर्य और बिछुवा।