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छंद 89 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिला सवैया
(लक्षिता नायिका-वर्णन)

यह भींगि गई धौं कितै अँगिया, छतिया धौं कितै यहि रंग-रँगी।
उबटैं हूँ न छूटत दाग हहा! कब की हौं छुड़ावती ठाढ़ी-ठगी॥
सुनि बात इती मुख नाइनि के, अति-सूधी-सयानपने सौं पगी।
मुख-मोरि उतै मुसुक्यानी तिया, इत नाइनि हूँ मुसुक्यानि लगी॥

भावार्थ: नायिका ने रात्रि भर श्रीकृष्ण से विहार किया है, अतः श्रम के कारण सवेरे उसकी कंचुकी स्वेद से भीगी है और प्रगाढ़ मर्दन के कारण उसके कुचों पर लालिमा तथा नखक्षत के चिह्न दिखाई देते हैं। अतएव नाइन ने स्नान कराते समय यह लक्षित कर सहज स्वभाव से व्यंग्य भरे शब्दों में उससे कहा कि यह चोली आज कहाँ भीगी है और उरोज आज ऐसे रंग से कहाँ रँग गए कि उबटने पर भी उनकी लालिमा नहीं छूटती, मैं कब की खड़ी छुड़ाती-छुड़ाती हार गई। नाइन के मुख से यह व्यंग्यात्मक बात सुनकर नायिका मुख मोड़ मुसकाई और इधर नाइन भी मुसकराने लगी। नाइन ने अपने वचन से यह व्यंजित किया कि होली में रंग से कंचुकी भीगी होती और कुचों पर लालिमा लगी होती तो और दिन की भाँति उबटने से छूट जाती, पर यह लालिमा तो नहीं छूटती; अतः इसका और ही कुछ कारण है।