छंद 92 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
किरीट सवैया
(मुग्धा अविदित अनंगा व अज्ञात यौवना नायिका-वर्णन)
आज सुभाइन हीं गई बाग, बिलोकि प्रसून की पाँति रही पगि।
ताही समैं तहँ आए गुपाल, तिन्हैं लखि औरौं गयौ हियरौ ठगि॥
पैं ‘द्विजदेव’ न जानि पर्यौ धौं कहा तिहिँ काल परे अँसुवा जगि।
तू जो कहै सखि! लौनौं सरूप, सो मो अँखियाँन मैं लौंनी गई लगि॥
भावार्थ: कोई अज्ञातयौवना नायिका मनमोहन को देख सात्त्विक अश्रुपात होने का कारण कहती है कि आज स्वतः मैं बगीचे को गई और वहाँ फूलों की पाँति (पंक्ति) देखती थी इतने ही में गोपाल आए, जिनको देख हृदय ठग गया और मेरे नेत्रों से आँसू गिरने लगे। मैं नहीं जानती कि आँसू क्यों बहने लगे? कदाचित् यही कारण है कि हे सखी! जो तू उनके रूप को लोना अर्थात् सलोना कहती थी सो उसीकी लोनी मेरी आँखों में लग गई। नेत्र में लोनी लगने से अश्रु का गिरना स्वाभाविक है।