छंद 93 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
दुर्मिला सवैया
(मध्याखंडिता नायिका-वर्णन)
लखि भाल पैं लाल-प्रभा रबि की-सी, सु न्यायन हीं मुख-चंद तच्यौ।
‘द्विजदेव’ कहा कहिवे हैं तिन्हैं, जु पैं चित्त-चकोर हूँ सोक-सँच्यौ॥
तिन सौतिन ए न असीसत क्यौं, कत नैन-सरोजन स्वाँग रच्यौ।
जिनके परसाद अली! अबलौं, इन्हैं लोचन-लाभई मानौं बच्यौ॥
भावार्थ: कोई ‘मध्याखंडिता’ नायिका पति को सुना सखी से कहती है कि ‘पिय-भाल पैं लाल-सिंदूर’ वा जावक की प्रभा भानु-सी देख मेरा मुख-चंद्र तमतमाया हुआ है और चित्तरूपी चकोर शोकयुक्त है, किंतु मेरे नयनों को चाहिए कि उन सौतिनों को आशीष दें; जिन्होंने ऐसा रूप नायक का बनाया, किंतु ये झूठमूठ स्वाँग ला (बना) रोने लगे, जिसके प्रसाद से हे सखी! अब तक लोचन इस लाभ से वंचित रहे अर्थात् सूर्य-दर्शन से चंद्र का फीका पड़ना और चंद्र-ज्योत्स्ना के हीन होने से चकोरों का दुःखित होना तो उचित ही है; किंतु कमलरूपी नयन जो रोए यह केवल ‘स्वाँग’ है, क्योंकि यदि यथार्थ में उनको इस लाभ से वंचित रहना था तो जैसे मैंने चित्त में किया था कि इस प्रकार के रूप को न देखूँगी वैसे ही ये भी न देखते, पर ये कैसे न देखें! सूर्य को देख कमल का प्रमुदित होना तो स्वाभाविक है, पर दुःखित होना युक्तिसंगत नहीं।