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धूवेँ का जंगल / ईश्वरवल्लभ / सुमन पोखरेल
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उपर आसमान को देखना है
क्षितिज को छुना है .
किसी को एक फूल देना है
आसपास कोई है कि नही !
यदि कोई है तो उसे बुलाना है ।
फिर कोई लहर व लस्कर बनाके दूर तक पहुँचना है
साम का रक्तिम सूरज
खो गया शायद कहीं
सुब्ह का भोर भी दिखाई नहीं दिया,
निचे जानेवाले रास्ता भी नहीं है।
कहाँ गए वे बस्तीयाँ ?
कहाँ गए वे रिस्तेदार ?
इसी धूवेँ की जंगल मे सब को ढुँडना है ।