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छंद 104 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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किरीट सवैया
(मध्याधीरा नायिका-वर्णन)

आँखिन के जल की जु है रीति, सदाँ तुम साँझ-हूँ-भोर निहारत।
तैं ‘द्विजदेव’ जू क्यौं कहि जाँइ, परे छत जे हिय कौं करैं आरत॥
बात बिचारिबे की यह लाल! कहा बकवाद कै मो-तन जारत।
मान रहैगौ कितै बलि जाउँ, सो मानिनी! मानिनी!! काहि पुकारत॥

भावार्थ: कोई मानिनी नायिका, मनावते (मनाते) हुए मनमोहन से कहती है कि तुम्हारे तन में मान रहने का स्थान ही नहीं है? फिर आप वृथा वकवाद कर मानिनी! मानिनी!! कह क्यों मुझे जला रहे हो? क्योंकि मान के रहने के दो ही स्थान हैं-एक तो नेत्र, दूसरा हृदय। सो नेत्र की दशा आप देखते ही हैं कि अश्रुधारा बह रही है तो धारा-प्रवाह में कोई वस्तु क्या ठहर सकती है? वह अवश्य बह जाएगी और हे परम चतुर! मैं कैसे कहूँ, क्योंकि दिखा तो सकती नहीं किंतु हृदय में जो छिद्र पड़े हैं उनके कारण वह भी मान के रखने योग्य नहीं रहा, क्योंकि फूटे भाजन में कोई रसीली वस्तु ठहर नहीं सकती और मान तभी तक है जब तक प्रेम रस बाकी है।