भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छंद 105 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:28, 3 जुलाई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज |अनुवादक= |संग्रह=शृंगारलति...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किरीट सवैया
(मनोज-प्रति काम-युक्ता विरहिणी नायिका की उक्ति)

पावक-पुंजनि खाइ-अघाइ, घने घने घाइन अंग सँवारत।
ऐसैंई दीन-मलीन हुतो, मन मेरौ भयौ अब तौ अति आरत॥
ए मनमोहन-मीत-मनोज! दया-दृग तैं किन नैंकु निहारत।
जानत पीर जरे की तऊ, अबला जिय-जानि कहा अब जारत॥

भावार्थ: कोई विरहिणी नायिका कामदेव से उलाहना देती हुई कहती है कि हे मनमोहन के सखा कामदेव! आप क्यों नहीं मुझपर कृपा-कटाक्ष फेरते। आप तो हर कोपानल में भस्म होने से जलने की व्यथा को भलीभाँति जानते हो, फिर क्यों मुझ अबला को जलाते हो? मैं तो विरहानल में ऐसे ही जलते-जलते शिथिलित हूँ और फिर अनेक दुःखरूपी घाव लगकर मेरा हृदय भी क्षत-विक्षत हो रहा है। मैं तो वैसे ही दीन-मलीन थी? पर अब तो और भी अत्यंत दयनीय दशा को पहुँच गई हूँ।