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छंद 110 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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किरीट सवैया
(नवोढा नायिका-वर्णन)

चालि सौं आई नई दुलही, लखिबे कौं जबै कोउ चाउ-बढ़ावति।
सूही सजी सिर सारी तबै-तब नाँइन आपने हाथ उठावति॥
भीतर भौंन तैं बाहिर लौं, ‘द्विजदेव’ जुह्नाई की धार-सी धावति।
साँझ-समैं ससि-की-सी कला, उदयाचल तैं जनु घेरति आवति॥

भावार्थ: जब कोई सखी अथवा पास-पड़ोसिनें गौने से आई हुई नवीन दुलहन का मुख देखने की इच्छा प्रकट करती हैं तब नाइन अपने हाथों से उसके मुख से कुसंुभी साड़ी को उठाकर दिखाती है; जिससे भवन के भीतर से बाहर तक जुन्हाई की धारा सी (उजियारी) प्रवाहित होती है। अतः कवि उत्प्रेक्षा करता है कि मानो दयाचल से संध्या-समय कुमुदिनी-नायक की कला प्रकाश करती है। लाल चुनरी से घिरे हुए वधू के मुख की सादृश्यता संध्या समय में उदय होते हुए चंद्र-बिंब से दिखाई गई है।