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छंद 117 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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रूप घनाक्षरी
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

सोचि के सँकोचिअति लाजनि सँभारि तन, आँगन के पास आइ-आइ घूँमि-घूँमि जाति।
‘द्विजदेव’ तैसिऐ मलिंदन की धुनि-धुनि, बैठैं हूँ बियोगिनी बिथा सौं झूँमि-झूँमि जाति॥
वाकी देखि ऐसी दसा बार-बार आप मींच, बीच हीं बिचारि चौखटहिँ चूँमि-चूँमि जाति।
लहलही-ललित-लवंग-लतिका-सी बाल, ख्याल ही तैं पौंन के परी पैं दूँमि-दूँमि जाति॥

भावार्थ: किसी नवीन ‘प्रोषितपतिका’ नायिका को विरह में डूबी व्याकुल हो उठने-बैठने में असमर्थ देख मृत्यु बारंबार आती है किंतु दयावश चौखट ही का चुंबन कर पलट जाती है, यह सोच के कि अन्य सहचरियों पर विरह-व्यथा की कथा प्रकट न हो, लज्जावश आँगन के सन्निकट आ फिर-फिर गुप्त मंदिर को पलट जाती है, कभी-कभी मधुकर-समूहों का गुंजार सुनकर वह बेचारी वियोगिनी वियोग-व्यथा से उन्मत्त सी हो झूम-झूम जाती है, इसी प्रकार लवंग-लता के सदृश वह बाला वसंतकालीन सुखद वायु के स्पर्श-मात्र ही से पड़ी अर्थात् शय्या पर भय से हिल-हिल जाती है यानी चौंक-चौंक पड़ती है।