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छंद 123 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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किरीट सवैया
(पूर्वानुराग-वर्णन)
बास-बगारती, ढारती-नेह, दुरी घन मैं छनभा-सी सुभायन।
त्यौं ललचौंहे लचाइकैं नैन, मचाइ बिनोद चितै तिरछायन॥
कौंन धौं का घर जाति चली, ‘द्विजदेव’ लखौ किन चित्त के चायन।
घेर कौ घाँघरौ घूटनि लौं, सिर-ओढ़नी बैजनी, पैजनी पाँयन॥
भावार्थ: कोई नायक किसी दूती से पूछता है कि सुगंध फैलाती हुई, स्नेह को बढ़ाती हुई तथा चंचला-सी मेघ में छिपी हुई अर्थात् बैंजनी रंग की साड़ी में लिपटी हुई घूँघट घाले, जिसका घाँघरा गुल्फपर्यंत तन ढाँके है (वह) कौन है? और किसके घर जा रही है? जिसने ललचाती हुई तिरछी आँखों से मेरी तरफ देखा तो मानो मुझे आनंद से परिपूरित कर दिया।