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छंद 130 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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किरीट सवैया
(परकीया नायिका-वर्णन)

वे बस-मंत्र सदाँई रहैं, इनकैं न है जंत्र, न मंत्र, न है मुनि।
वे डसि भाजति एक हीं बार, इन्हैं नहिँ तोष बिनाहिँ डसे पुनि॥
भेद चबाइन सौं औ भुजंगन सौं ‘द्विजदेव’ रहै धौं कितौ गुनि।
आँखिन देखि डसैं वे कहूँ, सखि! ए नितहीं डसैं कानन सौं सुनि॥

भावार्थ: देखो सखी! चबाइन और ब्याली (सर्प) के भेद को तू क्या सोचती है, इन दोनों में बहुत अंतर है। वे तो यंत्र, मंत्र ओर मुनि के वश्य हैं (यानी किसी-न-किसी के बस हो जाते हैं) ये किसी के नहीं? सर्प के काटने का तो मंत्र सुना जाता है किंतु इनके विष का तो कोई मंत्र ही नहीं है। उनके विष के उतारने के वास्ते यंत्रादिक का प्रयोग होता है, इनका यंत्र भी नहीं। उनके विष के शमन के अर्थ पुण्य श्लोक मुनियों के नाम हैं जैसे आस्तीक मुनि आदि, पर इनके शमनार्थ कोई मुनि भी नहीं। हे सखी! और देखो, सर्प एक ही बार डसकर भाग जाता है, इनको फिर-फिर संतापित किए बिना संतोष ही नहीं। तिसपर भी यह बड़ी विचित्रता है कि सर्प आँखों से देखे बिना नहीं डसता परंतु ये तो कानों ही से सुनकर ऐसी दुःखदायिनी होती हैं कि कदाचित ही उनके दंश से प्राण रक्षा भी हो सके, परंच इनके दुःख से तो कदापि जीवन का रहना संभव ही नहीं।