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छंद 131 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(कृष्णाभिसारिका नायिका-वर्णन)

कारौ नभ, कारी निसि, कारिऐ डरारी घटा, झूकन बहत पौंन आँनद कौ कंद री।
‘द्विजदेव’ साँवरी सलौंनी सजी स्याम जू पै, कीन्हौं अभिसार लखि पाबस-अनंद री॥
नागरी! गुनागरी! सु कैसें डरै रैनि-डर? जाके सँग सोहैं ए सहाइक अमंद री।
बाहन मनोरथ, उँमाहैं सँगवारी सखी, मैन-मद सुभट, मसाल मुख-चंद री॥


भावार्थ: उस आनंदमयी पावस की रात को देख जिसमें काले आकाश में काली घटा छा गई और पुरवाई प्रबल झोंकां से बहती है, उस समय गुन-आगरी सुंदरी नागरी ने श्याम से मिलने के लिए अभिसार की तैयारी की। भला उसे रात कैसे भयावनी लगती? जिसकी रखवाली के लिए कामदेव-सा सुभट साथ हो और मनोरथ-सा वेगगामी रथ उपस्थित हो, अनेक मनोल्लास ही सहचरियाँ हों और मुख-चंद्र की ज्योति ही बृहद दीपशिखा हो (सा) मार्ग प्रदर्शित करती हो।