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छंद 136 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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रूप घनाक्षरी
(मुग्धा अभिसारिका नायिका-वर्णन)

दाबि-दाबि दंतन अधर-छतबंत करै, आपने ही पाँइन कौ आहट सुनति óौंन।
‘द्विजदेव’ लेति भरि गातन प्रसेद अलि, पातहू की खरक जु होती कहूँ काहू-भौंन॥
कंटकित होत अति उससि उसासनि तैं, सहज सुबासन सरीर मंजु लागैं पौंन।
पंथ ही मैं कंत के जु होत यह हाल तौ पैं, लाल की मिलनि ह्वै है बाल की दसा धौं कौंन॥

भावार्थ: मध्या का अभिसार वर्णन करते हैं कि अभिसार में कदाचित् अपने पैर की भी आहट (आवाज) कान में पड़ती है तो अधर-पल्लवों को दंतावली से दबाती है, जिससे अधरक्षत भी हो गए हैं और यदि नायक के प्रेम-मार्ग में कहीं पत्ता भी खड़कता है तो भय से स्वेद सात्त्विक भी हो जाता है तथा शरीर में त्रिविध समीर लगता है तो उसाँस ले-लेकर रोमांच हो आता है। जब नायक के मार्ग ही में नायिका की यह दशा है तो मिलन-समय में न जाने क्या होगा।