छंद 142 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(वसंत-वर्णन और कवि-उक्ति)
गावौ किन कोकिल, बजावौ किन बैनु-बैनु, नाँचौ किन झूँमरि लतागन बने-ठने।
फैंकि-फैंकि मारौ किन निज कर-पल्लव सौं, ललित-लवंग फूल-पानन घने-घने॥
फूल-माल-वारौ किन, सौरभ सँवारौ किन, एहो परिचारक समीर! सुख सौं सने।
मौर-धरि बैठौ किन चतुर रसाल! आज, आवत बसंत ऋतुराज तुम्हैं देखने॥
भावार्थ: हे कोकिल! तुम सब गान क्यों नहीं आरंभ करते? हे वेणु! (बाँस) तुम सब अपनी वंशी क्यों नहीं बजाते? वायु-संचार से बाँस के रंध्रों में से वंशी का सा शब्द उत्पन्न होता है। हे लतागण! तुम सुसज्जित होकर क्यों नहीं समूहबद्ध मंगल नृत्य का आरंभ करते? हे लवंग-लता! तुम अपने पल्लवरूपी कर से पुष्पादि को फेंक-फेंककर क्यों नहीं मारते? हे वायुरूपी सेवक! तुम पुष्प-समूह की वर्षा और सुगंधित द्रव्य का संचार क्यों नहीं करते? वायु का दूसरा नाम गंधवाहक भी है, अतएव सुगंधि के फैलाने का कार्य इसीके सिर पर रखा और समीर उसी वायु को कहते हैं जिससे डालें हिलकर पुष्प बरसाती हैं। हे रसालरूपी दूल्हे! आज तुम्हें महाराज वसंत वर-रूप में देखने के लिए आते हैं तो तुम मौर (विवाह-मुकुट व रसाल-मंजरी) धारण कर सावधानी से क्यों नहीं बैठते?