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छंद 145 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(असूयाख्य संचारीभाव-वर्णन)

मैन सौं ज्यौं-ज्यौं भरै हियरा, जिय त्यौं-त्यौं-नित भींजति आवै।
बात सुधा-सी सयानिन की, हिय माँहिँ हलाहल कौ गुन छावै॥
भेव सो याकौ कोऊ ‘द्विजदेव’, दया करि बूझति हू न बतावै।
कौंन दै दोष दई निरदै, ब्रज-ही मैं नई यह रीति चलावै॥

भावार्थ: हे सखी! उस निर्दयी ब्रह्मा को कौन दोष लगावे, देखो, उसने इस व्रज में कैसी नई विपरीत रीति चलाई है, जिसके भेद को कोई भी हमें कृपा कर नहीं बतलाता। वह रीति यह है कि ज्यों-ज्यों मैन (मोम व काम) मेरा हृदय मढ़ता जाता है त्यों-त्यों नए प्रेम से मेरा हृदय भीगता ही जाता है और वह उत्तम चतुर सखियों की अमृतमयी शिक्षा अर्थात् उनके निषेष-वाक्य जानते हुए भी दुखदायी होकर हलाहल (विष) का काम देती है, क्या इससे यह ज्ञात नहीं होता कि ‘व्रजमंडल’ दयाशून्य हृदयों का समुदाय है? अतः प्यारे का भी हृदय दयाशून्य है।