छंद 150 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(दूतीकायातर्गत-संघटन-वर्णन)
ज्यौं-ज्यौं तुम गाइ गहि-गुननि बिकासौ बन, ह्वै-ह्वै अध-ऊरध झलान के झकोरे मैं।
त्यौं-त्यौं सुख पाइ तुब गुननि-गहीली बाम, होती अध-ऊरघ न केती चित-चोरे मैं॥
‘द्विजदेव’ याही बिधि झूलती किती की मति, जाहि अवलोकि हिय हरख-हिलोरे मैं।
कैसी यह झूलनि तिहारी है तिहारी सौंह, एहो ब्रजराज! आज रंग के हिँडोरे मैं॥
भावार्थ: कोई दूती व्रजराज अर्थात् श्रीकृष्णचंद्र के हिंडोला झूलते समय झूलनि की समता देकर व्रजनारियों का ‘पूर्वानुराग’ सुनाती है कि हे प्यारे! जिस प्रकार तुम मेघराग अलापते हुए गुण (रस्सा) को पकड़कर झूले को ऊपर-नीचे झकोरे दे-देकर लाते हो उसी प्रकार आपके गुण के अवलंब से व्रज-वनिताओं के मन, जिन्हें आपने चुराया है, ऊँचे-नीचे हो रहे हैं अर्थात् मिलन के वास्ते ‘ऊकबीक’ (उद्विग्न) हो रहे हैं और त्योंही आपकी भूलनि को देख कितनी ही स्त्रियों के मन आपके समागम से प्रसन्न हो हर्ष के हिंडोले में झूल रहे हैं। यह कैसी अपूर्व झूलनि आपकी रंग के हिंडोले में अर्थात् रंग-बिरंगे फूलों से बने हुए हिंडोले में है कि जो सारी (संपूर्ण) व्रजनारियों को संयोग-वियोग दोनों अवस्थाओं में झुला रही है।