छंद 151 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(प्रोषितपतिका-नायिका-वर्णन)
घहरि-घहरि घन! सघन चहूँघाँ घेरि, छहरि-छहरि बिष-बूँद बरसावै ना।
‘द्विजदेव’ की सौं अब चूकि मत दाँव अरे पातकी पपीहा! तू पिया की धुनि गावै ना॥
फेरि ऐसौ औसर न ऐहै तेरे हाथ अरे, मटकि-मटकि मोर! सोर तू मचावै ना।
हौं तौ बिन-प्रान, प्रान-चाँहति तज्यौई अब, कत नभचंद! तू अकास-चढ़ि धावै ना॥
भावार्थ: मैं तो बिना प्राणप्यारे के प्राण त्याग करना ही चाहती हूँ। परंतु हे मेघ! तू भी चारों ओर से घेर-घेरकर अँधियारा करके ये जहर भरी बूँदें बरसा ले और ब्राह्मण तथा देवता की शपथ कर कहती हूँ कि अरे पातकी पपीहे! तू भी अपना दाँव मत चूक, जितनी ‘प्रियतम’ की ‘रट’ लगाते बने उतनी लगा ले; अरे मोर! तेरे हाथ भी फिर ऐसा समय न लगेगा, तुझसे भी मटक-मटकर जितना कोलाहल मचाते बने, मचा ले, क्योंकि मैं तो बिना प्राणनाथ के प्राण त्याग अवश्य ही करूँगी। इससे हे चंद्र! तू भी आकाशमार्ग में जहाँ तक दौड़ सके वहाँ तक दौड़ ले (नायिका की स्वयं उक्ति)।