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छंद 155 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद-सवैया
(अति सुंदरता-वर्णन)

बाग-बिलोकनि आई इतै, वह प्यारी कलिंद-सुता के किनारे।
सो ‘द्विजदेव’ कहा कहिऐ, बिपरीत जो देखति मो दृग हारे॥
केतकी-चंपक-जाति-जपा, जग-भेद-प्रसूनन के जे निहारे।
ते सिगरे मिसि पातन के छबि, वाही सौं माँगत हाथ-पसारे॥

भावार्थ: आज मैं प्यारी यमुना के तीर पर वाटिका-विहार को गई तो वहाँ की विलक्षण रीति को देखकर मेरे नेत्र विस्मित हो गए। वह रीति यह है कि केतकी, चंपा चमेली, गुड़हलादिक जो पुष्पों के प्रकार या भेद हैं, वे सब अपने पत्रावलीरूपी हाथों (पत्रों का रूप प्रायः फैलाए हुए हाथ सा होता है) को पसारकर मानो उसी नायिका से शोभा की भीख माँगने लगे अर्थात् नायिका उनकी शोभा देखने गई, उलटे पुष्प ही उसकी शोभा से छकित हो उससे रूप की भीख माँगने लगे।