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छंद 157 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(नायिका-सौंदर्य-वर्णन)

बसि कैं जल-दुर्ग अहो अरबिंद! सो आपु-हिए कह हाले परे।
मनरंजन खंजन रावरेऊ, उर दाग कहा अति आले परे॥
‘द्विजदेव’ मलिंद रहौं दबि कैं तुम क्यों सब-के-सब काले परे।
दृग कानन आवत देखि तुम्हैं, मृग कानन हूँ मैं कसाले परे॥

भावार्थ: कवि ने अपनी कविता के युक्तिबल से ‘काव्यलिंग अलंकार’ द्वारा स्वभावतः कमल-पुष्पों का जल में वायु से हिलना, खंजरीट (खँड़रिच) के वक्षःस्थल में काले धब्बे का पड़ना, भ्रमरगण का श्याम रंग होना और हरिणों का वन में रहना, इन सबका कारण (इनका) कवल श्रीराधिकाजी ने नेत्रों के उपमान होने पर भी उपमेय से उपमान का अनादर होना ही ठहराया है और ‘अभिधामूलक व्यंग्य’ के द्वारा यह भी व्यंजित कराया है कि यद्यपि तुम सब उपमानों ने इतने कष्ट सहन किए तथापि उनके नेत्र कानन (वन व श्रवण) अर्थात् श्रवण तक बढ़ते चले (ही) आते हैं तो (इसलिए) अब तुमको वन में भी रहने का सुभीता न रहा।