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छंद 162 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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दुर्मिल सवैया
(विरह-निवेदन-वर्णन)
सब ऐसैंई अंग हुते तिय के, कछु प्रान-बिहीन ह्वै बोले परे।
‘द्विजदेव’ जू ता पैं बियोग की झारि, हिए मैं हजार-फफोले परे॥
इक आज लौं वे अरबिंद से नैनहुँ, ते कछु आनन-खोले परे।
चलिऐ बलि बेगि? न तौ अब नैनऊ, प्रान सौं चाँहत पोले परे॥
भावार्थ: हे कृष्ण! उस विरहिणी नायिका के सर्वांग कुछ योंही आपके वियोग से प्राणरहित से हो चुके थे, तिसपर वियोगानल की लपट से उसके हृदय में अनेक फफोले पड़ गए। केवल आपकी आगमन-प्रतीक्षा के कारण ही अद्यावधि उसके नेत्र खुले हुए बाट जोह रहे हैं, अतः यदि आप शीघ्र ही न पधारेंगे तो नेत्र भी पोले पड़ जाएँगे अर्थात् प्राणरहित हो जाएँगे और पूर्णतया दशमावस्था (मरण) प्राप्त हो जाएगी। ‘प्राण’ शब्द से ‘साध्यवसाना लक्षण’ है।