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छंद 168 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(खंडिता नायिका-वर्णन)

आज लौं मौन गह्यौई हुतो, सुनि कैं सिगरौ गुन-ग्राम तिहारौ।
पैं ‘द्विजदेव’ जू साँची कहौं, अब जोबतहूँ जिय जाइ न जारौ॥
बूझतीं तातैं बिहारी! तुम्हैं, किन सौंहैं कपोल करौ कजरारौ।
पी है घटी रस कौ लौं लला! अरु घाइ सहै घरयार बिचारौ॥

भावार्थ: स्वकीया ‘प्रौढ़ा खंडिता’ नायिका प्रातः काल श्रीवृंदावनविहारी को आए देख कहती है कि कज्जल-कलित कपोल को आप सम्मुख क्यों नहीं करते? यह कब तक छिपेगा? क्योंकि आज तक आपके ये सब गुण सुनकर मैंने मौनावलंब धारण किया कि कदाचित मेरी सखियाँ मिथ्या कहती हों, किंतु प्रत्यक्ष देखकर तो अब सहन नहीं होता। इसी कारण आपसे प्रार्थना है कि कब तक यह चाल रहेगी कि रस (जल) का पान तो घटी (जल-घड़ी का कटोरा) करे और मुँगरी की चोट घड़ियाल सहन करे अर्थात् रसपान तो सौतें (विपत्ति) करेंगी और व्यर्थ की चोट मैं अपने कलेजेरूपी घड़ियाल पर सहन करती रहूँगी।