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छंद 173 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(परकीया ऊढ़ा नायिका-वर्णन)

लहि जीवन-मूरि कौ लाहु अली! वै भली जुग-चारि लौं जीवौ करैं।
‘द्विजदेव’ जू त्यौं हरखाइ हिऐं, बर-बैन-सुधा-मधु पीवौ करैं॥
कछु घूँघट-खोलि चितै हरि-ओरन चौथ-ससी-दुति लीवै करैं।
हम तौ ब्रज कौ बसिवौई तज्यौ, अब चाव चबाइनैं कीवौ करैं॥

भावार्थ: कोई अनुरागिणी नायिका चौचंद करनेवालियों के भय से कहती है कि मैंने तो अब व्रजमंडल का वास ही त्याग दिया। अब जिसकी जो अनहित करने की इच्छा हो करे और वे सौतें जीवन-मूरि अर्थात् प्राणप्यारे का लाभ करके उत्तम-रीति से अपने जीवन के सुख का भोग चतुर्युगपर्यंत करें, यानी चिरजीवी रहें। जीवन की औषध के प्राप्त होने से चिरजीवी होना उचित ही है और मुख से प्रियतम के वचनामृत का सुधा पान बहुत काल तक करें (सुधा-पान का फल भी अमर होता है) तथा किंचित् घूँघट खोल-खोल कर मनोहर मूर्ति को देखते रहें, जिससे शुक्लपक्ष की चतुर्थी की चंद्रमा की समता को भी प्राप्त हों, (कवि-नियम में आधे घूँघट खुले हुए मुख की उपमा चतुर्थी के चंद्र से दी जाती है) अर्थात् जैसे हमको कलंक लगाती रहीं वैसे ही स्वयं कलंक भाजन बनें। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चंद्र दर्शन करना कलंक का हेतु समझा जाता है, यह पौराणकीय वार्त्ता है।