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छंद 177 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(परकीया उत्कंठिता नायिका-वर्णन)

घाँघरी राती सुहाती लसै सिर-सारी सजैं सुधा-सोभ समूली।
प्रेम-पियूष-पगी, उमँगी, ‘द्विजदेव’, कदंब की डारनि झूली॥
भौंर की भीर भुलाइ रही, जऊ आप मरंदन के रस-भूली।
हारसिँगार की बीथिन, मैं सु तौ हारसिँगार के फूल-सी फूली॥

भावार्थ: किसी सखी के ‘खोज’ पूछने पर कोई दूसरी सखी किसी उत्कंठिता नायिका की देखी हुई अवस्था को कहती है कि वह तो अरुण घाँघरी व श्वेत साड़ी धारण किए प्रेमरस में डूबी, कदंब की डार के अवलंब से खड़ी प्रियतम के अनागम के कारण पर विचार करती बाट जोह रही है, हरशृंगार (शेफालिका) के वन में हरशृंगार की लता सी कदंब से लिपटी वह पुष्पित सी हो रही है और ऐसा ही अनुमान कर मकरंद-पानार्थ भ्रमर भी उसपर झुके जाते हैं, यद्यपि वह स्वतः प्रेम-मधु से छकित है (और) भ्रमर समूह को भी यही भ्रम होता है, स्वयं प्रेमरूपी मकरंद मधुपान किए है अर्थात् उन्मत्त सी खड़ी है उस (प्रियतम) के अनागम के कारण मैं तर्क-वितर्क करती हुई।