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छंद 178 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(पूर्वानुराग-वर्णन)

बहु-भाँति बगारै जु या ब्रज मैं, अति आनन-ओप-अनूप-कला।
‘द्विजदेव जू’ चंद्रिका की छबि जाकी, प्रसादि रही सिगरी अचला॥
निरख्यौ जब तैं इन नैन-चकोरन, बीतत ज्यौं जुग एक पला।
चहुँघाँ सखि! चाँदनी-चौक मैं डोलत, चंद-अमंद-सौ नंद-लला॥

भावार्थ: हे सखी! जब से इन नेत्ररूपी चकोरों ने चंद्रतुल्य नंदलाल को देखा है तब से एक पल के भी वियोग को वे जुग सम व्यतीत करते हैं अर्थात् वियोग दुस्सह है, शीघ्र ही मिलने का उपाय कर। यहाँ चंद्र की उपमा व्यर्थ नहीं दी गई है किंतु सिगरे (संपूर्ण) गुण चंद्रमा के उनमें हैं, जैसे पूर्णचंद अपनी कला (अंश) को चतुर्दिक् इस व्रज मेें फैलाए हुए है अथवा जैसे चंद्र अपनी चंद्रिका (ज्योस्तना) को अचला (पृथ्वी) पर प्रसारित कर रहा है-प्रकाशित कर रहा है, वैसे ही इनकी चंद्रिका (मोरमुकुट) की भी छवि सिगरी (संपूर्ण) अचला अर्थात् निश्चलहृदया व्रज-बालाओं को प्रसन्न कर रही है, जैसे चंद्रमा-चौक अर्थात् तन्नामक आँगन में किरणों के ब्याज से विहार करता है वैसे ही वे भी चाँदनी-चौक, यानी चाँदनी-पुष्पों की क्यारियों से मिलित चतुष्पथ में विहार कर रहे हैं। (कला, चंद्रिका, प्रसाद, अचला और चाँदनी चौक, इन पाँचों शब्दों में श्लेष है।)