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छंद 179 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(आगतपतिका नायिका-वर्णन)

आवत हीं हहराइ हियौ, सुख-अंत कियौई हिमंत कुचाली।
त्यौं ‘द्विजदेव’ या पाँचैं-बसंत की, पीत करौ सिगरौ तन साली॥
जारती ज्वालनि होरी न क्यौं, लखि सूनौं निकेत बिना-बनमाली।
सीत के अंत, बसंत के आगम, भाँवतौ जौ पैं न आवतो आली॥

भावार्थ: हे सखी! इस कुटिल हेमंत ऋतु के लगते ही हृदय को कंपायमान कर सुख का नाश कर दिया, वैसे ही इस वसंत ने प्रबल दुःख देकर सारे शरीर ही को पीला कर दिया, (इस पंचमी को लोग प्रायः पीले वस्त्र धारण करते हैं) तब भला मेरे घर को सूना देखकर यह होलिका (जिसमंे संवत्सर का दहन होता है) मुझे क्यों न जला देती, यदि शीतकाल के अवसान होते और वसंत के लगने से पूर्व ही प्यारे घर न आ जाते।