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छंद 183 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(पूर्वानुराग-वर्णन)

करि मंजन ठाढ़ी हुती सुख सौं, अति आज कलिंदजा-कूल अली!।
‘द्विजदेव’ जू औचक ताही समैं, तहाँ आँनि कढ़े कहूँ कान्ह छली॥
बिसरी सिगरी सुधि ताछिन तैं, कछु ऐसिऐ डीठि की फाँसी घली।
कढ़ी केसन के सुरझाइवे कौं, मनमोहन सौं उरझाइ चली॥

भावार्थ: कोई अनुरागिणी नायिका अंतरंगिणी सखी से कहती है कि आज यमुना स्नान के पश्चात् तट पर खड़ी हो मैं बालों को सुलझाती रही अर्थात् केश-विन्यास करती रही, उसी समय अकस्मात् छली अर्थात् छल-विद्या में निपुण कान्ह (कृष्णचंद्र) उसी मार्ग से जाते दीख पड़े, तब से मेरी सुधि-बुधि ऐसी जाती रही कि क्या कहूँ। सखी! मैं तो केशपाश के सुलझाने को गई थी, उलटे उनकी कटाक्षरूपी फाँसी में मन उलझा आई।