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छंद 186 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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जलहरन घनाक्षरी
(रति व आनंद-सम्मोहिता नायिका-वर्णन)

सीस-फूल सरकि सुहावने ललाट-लाग्यौ, लाँमी लटैं लटकि परी हैं कटि-छाम पर।
‘द्विजदेव’ त्यौं हीं कछु हुलसि हिए तैं हेलि, फैलि गयौ राग मुख-पंकज ललाम पर॥
स्वेद-सीकरनि सराबोर ह्वै सुरंग-चीर, लाल दुति दै रही सुहीरन के दाम पर।
केलि-रस-साँने दोऊ थकित बिकाने तऊ, हाँ की होत कुमक सु नाँ की धूम-धाम पर॥

भावार्थ: नायिका का सीस-फूल सरककर ललाट पर शोभित हो रहा है और केशपाश लटककर क्षीण कटि पर पड़े हैं, इसी तरह उसका अनुराग, हृदय से निकलकर मुख-पंकज पर फैल गया है, अरुण सारी प्रस्वेद (पसीने) से भींग हृदय के हारों में लालिमा दिखला रही है, इस तरह यद्यपि दोनों केलि कर थकित से हो रहे हैं तथापि ना (नहीं) की धूमधाम पर हाँ (हाँई) की मदद हो रही है अर्थात् ज्यों-ज्यों नायिका नाहीं करती है त्यों-त्यों का चित-भाव बढ़ता है और वह रति में उत्साहित होता जाता है।