छंद 189 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
दुर्मिल सवैया
(उद्धव प्रति गोपी वाक्य-वर्णन)
कोऊ जाइ सिखीगन कौं सिखवै, अनखात न क्यौं मघवा खल सौं।
पपिहाऊ पिऐं किन जाइकैं नीर, अघाइकैं गोखुर के थल सौं॥
अब ऊधौ! दया करि आए इतै, ब्रज-बासिन पायौ महा फल सौं।
थल बावरे दावरे बीच करैं, रह्यौ मीनन-काम कहा जल सौं॥
भावार्थ: कोई व्रजबाला उद्धव को सगुण उपासना त्यागकर कृष्ण से (प्रति) निर्गुण उपासना की शिक्षा देते हुए देख अपने दृढ़ प्रेम का परिचय देकर यों कहती है कि हे उद्धव! आप कृपा कर व्रजमंडल में आए, इससे व्रजवासियों को शिक्षा-लाभ का बड़ा फल हुआ। यदि कोई मयूर समूह को यह शिक्षा दे कि वे मेघों के राजा इंद्र से स्नेह छोड़ बैर करें, चातक-गण अपने स्वाति बूँद से मुख मोड़ गोखुर में भरे हुए जल से पिपासा (प्यास) बुझावें और मत्स्यों को शिक्षा दे कि वे जल छोड़ अग्नि की ज्वाला में निवास करें तथा पूर्वोक्त शिक्षा में कृतकार्य हों तो हम सब भी नंद-नंदन के प्रेम का परित्याग करें।