छंद 192 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
दुर्मिल सवैया
(उत्तमा दूती-वर्णन)
सहि कैं कर-पात कौ घात घनौं, सब भाँति सौं सोभ नई दरसैं।
‘द्विजदेव’ जू सूधे सुभाइ सुबृत्त, सबै बिधि रागमई दरसैं॥
सखि! जे वे बिकाइ मिलाप के चाइ, परे तुव पाँइनईं दरसैं।
तिन लालन भाँषैं कठोर जु तौ, ब्रज-बाल अपूरबई दरसैं॥
भावार्थ: दूती गुरुजन में स्थित मान किए हुए लाडली (श्रीराधिकाजी) को देख अभिधामूलक व्यंग्य की युक्ति से, चतुराई से प्रियाजी के नूपुर की प्रशंसा करती है एवं नायक का दैन्य दिखा मानमोचन कराया चाहती है।
सहि कैं कर-पात कौ घात घनौं, सब भाँति सौं सोभ नई दरसैं।
क्योंकि देख! वह मणि करपात (खराद) की चोट सहकर सुडौल हो गई है अथवा वे (श्रीकृष्ण) भी करपात (चपेटिका) का आघात सहकर भी अज्ञान ही रहते हैं।
‘द्विजदेवजू’ सूधे सुभाइ सुबृत्त, सबै बिधि रागमई दरसैं।
एवं यह तेरे नूपुर की मणि स्वभावतः सुवृत्त (गोल) और राग (ललाई) से युक्त है। इसी प्रकार वह (नायक) भी स्वभावतः सुवृत्त (सदाचारी) और अनुरागमय (स्नेहमय) हैं।
सखि! जे वे बिकाइ मिलाप के चाइ, परे तुव पाँइनईं दरसैं।
तथा यह नूपुर में बँधकर तेरे मिलाप के हेतु सदा तेरा चरण-सेवन करता है और वह (नायक) भी तेरे मिलाप के अर्थ सदा तेरे पैरों पर पड़े ही दिखते हैं।
तिन लालन भाँषैं कठोर सुतौ, ब्रज-बाल अपूरबई दरसैं।
ऐसी लालमणियों को जो तू कठोर (पाषाण) कहती है तो हे व्रजबाला! तेरी बुद्धि विलक्षण है। अथवा ऐसे लालन (प्यारे) को जो तू कठोर (हृदय) कहती है तो तेरी बुद्धि विचित्र है अर्थात् तू बड़ी कृतघ्न है और तुझे भले-बुरे का ज्ञान नहीं।