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छंद 199 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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  मत्तगयंद सवैया
(विरह-निवेदन-वर्णन)

बुद्धि बिवेक सबै तजि कैं, मन की कछु रीति अपूरब ह्वैहै।
सो तन तायौ कितौऊ रहै घर, जीवन जीवन हीं ढिँग जैंहै॥
रावरे! आगम मैं ‘द्वजदेव’, बिलंब कछू जो कहूँ सुनि पैहै।
ओठन लागी जो आसन सो, फिरि ओठन तैं वह साँस न ऐहै॥

भावार्थ: कोई दूती, विदेश बसे प्राणप्यारे से कहती है कि जो आपके घर चलने में विशेष विलंब होता है तो उस नायिका की बुद्धि विवेकरहित और मन की गति कुछ और ही प्रकार की हो जाएगी अर्थात् प्रलाप के कारण चित्त स्थिर न रहेगा तथा उसका शरीर यद्यपि कितना ही लोक-लज्जा आदि के कारण ताया (जैसे घड़े का मुख बंद कर ऊपर मिट्टी लगा देते हैं जिसमें वायु का प्रवेश न हो जाए) अर्थात् सुरक्षित रखा जाए तथापि हे प्राणजीवन! उसका जीव आप ही के सन्निकट जाएगा। अतः उसकी स्वाँस आगमन-प्रत्याशा में जो होंठ से लग रही है वह पुनः भीतर को न जाएगी।