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छंद 203 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(परकीया नायिका-वर्णन)

जरि हैं कब लौं बिरहा-झरतैं, तिनके डरतैं कब लौं डरि हैं।
‘द्विजदेव’ जू ए दुखदाई लुगाई, न या ब्रज तैं कितहूँ टरि हैं॥
जल-केलि मैं छींट छई-सो-छई, उर-त्रास न याकौ कछू धरि हैं।
लखि मो मुख-चंद मैं पंक लग्यौ, वे कलंक लगाइ कहा करि हैं॥

भावार्थ: हे सखी! इस विरहानल में हम कब तक भस्म हुआ करेंगी? और इन चबाइयों के भय से कब तक डरा करेंगी? क्योंकि ये दुःखदायिनी स्त्रियाँ इस व्रजमंडल से कदापि टलनेवाली नहीं, अस्तु, जल-विहार में यदि पंक की छींट पड़ ही गई तो इसका भय कहाँ तक करूँ; क्योंकि मेरे मुख-चंद्र में पंक को लगा देखकर वे मुझे कलंक लगा क्या करेंगी? मयंक तो सकलंक होता ही है एवं चंद्रमा का नाम भी ‘पंकज’ है तो जो जल से उत्पन्न होगा उसमें पंक का लगना युक्त ही है।